मिट्टी हूँ मैं, मिट्टी हो तुम,
हवाओं से कह दो कर दे हमें गुम।
मैं काली बनूँ तुम लाल बनो,
मोहलत को जो रहे वो मलाल बनो।
मैं खाद बनूँ तुम बाग़ बनो,
खेतों से आए वो राग बनो।
मैं लिपटी मिलूँ कुल्हाड़ी में
तुम फसलों की पलंग बन जाना,
चाहे चोट कितनी भी खानी पड़े
बंजर ज़मीं ना तुम कहलाना।
मिलेंगे लहरों में हम कभी
समंदर में जब जाना होगा,
नदियों संग सैर करेंगे दोनों,
तुझे किस्सा भी तो सुनाना होगा!
चाहे दूर ठिकाना हो अपना,
किनारे अलग हो जाएं भले,
तू खुशबू अपनी फैलाना,
जब-जब ये हवाएं चले।।
©Prachi, due credit must be given to the author in case of using the excerpts or link of the poem.
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Good one ☝️
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Thank you 😊
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